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थल सेना प्रमुख बिपिन रावत के रुखसत होने पर पीएम मोदी हुए दुखी...

थल सेना प्रमुख बिपिन रावत के रुखसत होने पर पीएम मोदी हुए दुखी...


दिल्लीः
देश के पहले चीफ़ ऑफ़ डिफेंस स्टाफ़ जनरल बिपिन रावत की आठ दिसंबर को तमिलनाडु के कुन्नूर में वायु सेना के एक हेलिकॉप्टर दुर्घटना में मौत हो गई। देश के बहादुर और ज़िम्मेदार थल सेना प्रमुख का इस तरह रुखसत हो जाने से देश कि जनता बहुत दुखी है। एक ऐसी अज़ीम शख्सियत के जाने से सभी उदास हैं।

जनरल रावत की मौत पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट कर कहा, ''जनरल बिपिन रावत एक शानदार सैनिक थे। सच्चे देशभक्त, जिन्होंने सेना के आधुनिकीकरण में अहम भूमिका निभाई। सामरिक और रणनीतिक मामलों में उनकी दृष्टिकोण अतुलनीय था। उनके नहीं रहने से मैं बहुत दुखी हूँ। भारत उनके योगदान को कभी नहीं भूलेगा.''



31 दिसंबर, 2016 को जब जनरल बिपिन रावत को थल सेना की कमान सौंपी गई तभी पता चल गया था कि प्रधानमंत्री मोदी उन पर बहुत भरोसा करते हैं। जरनल रावत का थल सेना प्रमुख बनना कोई सामान्य प्रक्रिया नहीं थी। उन्हें सेना की कमान उनके दो सीनियर अधिकारियों की वरिष्ठता की उपेक्षा कर दी गई थी।

अगर पारंपरिक प्रक्रिया से सेना प्रमुख बनाया जाता तो वरिष्ठता के आधार पर तब ईस्टर्न कमांड के प्रमुख जनरल प्रवीण बख्शी और दक्षिणी कमांड के प्रमुख पी मोहम्मदाली हारिज़ की बारी थी।

लेकिन मोदी सरकार ने वरिष्ठता की जगह इन दोनों के जूनियर जनरल रावत को पसंद किया। तब कई विशेषज्ञों ने कहा था कि जनरल रावत भारत की सुरक्षा से जुड़ी वर्तमान चुनौतियों से निपटने में सक्षम हैं। तब भारत के सामने तीन बड़ी चुनौतियां थीं, सीमा पार से आतंवाद पर लगाम लगाना, पश्चिमी छोर से छद्म युद्ध को रोकना और पूर्वोत्तर भारत में उग्रवादियों पर लगाम लगाना।

तब जनरल रावत के बारे में कहा गया था कि पिछले तीन दशकों से टकराव वाले क्षेत्र में सेना के सफल ऑपरेशन चलाने का उनके पास सबसे उम्दा अनुभव है।

जनरल रावत के पास उग्रवाद और लाइन ऑफ कंट्रोल की चुनौतियों से निपटने का भी एक दशक का अनुभव था। पूर्वोत्तर भारत में उग्रवाद को काबू में करने और म्यांमार में विद्रोहियों के कैंपों को ख़त्म कराने में भी जनरल रावत की अहम भूमिका मानी जाती है। 1986 में जब चीन के साथ तनाव बढ़ा था, तब जनरल रावत सरहद पर एक बटालियन के कर्नल कमांडिंग थे।

बताया जाता है कि जनरल रावत के करियर के इस अनुभव से पीएम मोदी प्रभावित थे और उन्हें सेना की कमान सौंपने में वरिष्ठता की परवाह नहीं की। हालाँकि भारतीय सेना का प्रमुख बनाने में वरिष्ठता की उपेक्षा करने वाले नरेंद्र मोदी कोई पहले प्रधानमंत्री नहीं हैं।

हालांकि आपको बतादें कि इससे पहले 1983 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भी लेफ्टिनेंट जनरल एसके सिन्हा की वरिष्ठता की परवाह किए बिना उनके जूनियर लेफ़्टिनेंट जनरल एएस वैद्य को सेना की कमान सौंपी थी। इंदिरा गांधी के इस फ़ैसले के विरोध में जनरल एसके सिन्हा ने इस्तीफ़ा दे दिया था।


इंदिरा गांधी ने 1972 में भी ऐसा ही किया था। तब उन्होंने बहुत ही लोकप्रिय लेफ्टिनेंट जनरल एस भगत को वरिष्ठता की उपेक्षा करते हुए उनके जूनियर लेफ़्टिनेंट जनरल जीजी बेवूर को सेना की कमान सौंप दी थी।


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